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काफल

कहते हैं बहुत समय पहले हमारे पहाड़ के गांव में एक औरत और उसकी 6-7 साल की बेटी रहते थे। बेटी के सिर से पिता का साया उठ चुका था इसलिए ये दोनो मां बेटी अकेले ही दिन काट रहे थे। एक बार माँ सुबह सवेरे घास के लिए गयी और घास के साथ काफल भी तोड़ के लाई। बेटी ने काफल देखे तो काफी खुश हो गई, तभी माँ ने कहा कि मैं खेत में काम करने जा रही हूँ, दिन में जब लौटूंगी तब काफल खाएंगे और माँ ने काफल टोकरी में रख दिए। बेटी दिन भर काफल खाने का इंतज़ार करती रही। बार बार टोकरी के ऊपर रखे कपड़े को उठा कर देखती और काफल के खट्टे-मीठे रसीले स्वाद की कल्पना करती। लेकिन उस आज्ञाकारी बच्ची ने एक भी काफल उठा कर नहीं खाया।

आखिरकार माँ आई, बच्ची दौड़ के माँ के पास गयी और बोली— ईजा अब काफल खाएं?

ईजा (माँ) बोली — थोडा साँस तो लेने दे बेटी।

कुछ देर बाद माँ ने काफल की टोकरी निकाली, उसका कपड़ा उठा कर देखा तो काफल काफी कम नज़र आ रहे थे। ये देखकर वो बोली — अरे ये क्या, काफल कम कैसे हुए ? तूने खाये क्या?

बेटी– नहीं माँ, मैंने तो चखे भी नही!

बेटी की इस बात पर मां को एतबार ना हुआ। जेठ की तपती दुपहरी में दिमाग गरम पहले ही हो रखा था, भूख और तड़के उठ कर लगातार काम करने की थकान, माँ को बच्ची के झूठ बोलने से गुस्सा आ गया और माँ ने ज़ोर से एक थप्पड़ बच्ची के सर पे दे मारा। बच्ची उस अप्रत्याशित वार से तड़प के नीचे गिर गयी और उसका सिर एक पत्थर से टकरा गया।

टूटती सांसों के साथ बेटी ने धीरे से कहा – "मैंने नहीं चखे माँ” और इतना कहते हुए उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

एक क्षण के बाद माँ का क्षणिक आवेग उतरा तो उसे होश आया ! वह बच्ची को गोद में ले प्रलाप करने लगी ! ये क्या हो गया, दुखियारी का एक मात्र सहारा था वो भी अपने ही हाथ से खत्म कर दिया, वो भी तुच्छ काफल की खातिर,आखिर लाई किस के लिए थी। उसी बेटी के लिए ही तो, तो क्या हुआ था जो उसने थोड़े खा लिए थे।

माँ ने उठा कर काफल की टोकरी बाहर फेंक दी। रात भर वह रोती बिलखती रही। दरअसल जेठ की गर्म हवा से काफल कुम्हला कर थोड़े कम हो गए थे। रात भर बाहर ठंडी व् नम हवा में पड़े रहने से वे सुबह फिर से खिल गए और टोकरी पूरी हो गई तब माँ की समझ में आया और वह भी पश्चाताप से खुद का सिर पटक पटक कर मर गई।

कहते हैं कि वे दोनों मर के पक्षी बन गए और आज भी जब जंगल में काफल पकना शुरू होता है तो इन दोनों ने से एक पक्षी बड़े करुण भाव से गाता है “काफल पाको, मी नी चाखो”(काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं) और तभी दूसरा पक्षी चीत्कार कर उठता है “पुर पुतई पूर पूर”(पूरे हैं बेटी पूरे हैं)। ये भी मां बेटी हैं।

उत्तराखंड की यह लोक कथा आपको कैसी लगी कमेंट करके ज़रूर बताएं, साथ ही यह भी बताएं की क्या आपने भी खाए हैं काफल !!!

writen by :- देवेंद्र गोसाई