लगभग 25-30 साल पहले की बात है, जब गांवों में न टेंट वालों का चलन था, न बुफे और हलवाई की व्यवस्था। हर गांव में एक बड़ी चांदनी होती थी, जिसे किसी चौक में बिछाकर बारात के मेहमानों के लिए बैठक बनाई जाती थी। भोज का सारा इंतज़ाम पूरा गांव मिलकर करता था—कहीं सूजी पक रही होती, कहीं स्वाळी बनाई जा रही होती, तो कहीं बेटियां और बहुएं मिलकर रोटियां सेंक रही होतीं। दिन के भोजन की ज़िम्मेदारी ब्राह्मण सरोला उठाते थे, और उनके सिवाय किसी को भी चूल्हों के पास जाने की अनुमति नहीं होती थी।
विवाह या किसी भी बड़े पारिवारिक आयोजन में पूरे गांव का योगदान रहता था—भेल्ली, काली दाल, बिस्तर, तकिए, दूध-दही सब कुछ गांव से ही इकट्ठा किया जाता था। यदि किसी के घर शादी होती, तो पूरा गांव एकजुट होकर दो महीने पहले ही एक बड़ा पेड़ काटकर लकड़ी का इंतज़ाम कर देता। बड़े-बुजुर्गों का विशेष ध्यान रखा जाता, उनकी राय सबसे पहले सुनी जाती, और पूरा गांव बारात के स्वागत में खड़ा रहता। महिलाएं और युवतियां बारात का स्वागत मीठी गालियों (शगुन भरे गीतों) से करतीं, हंसी-मजाक का माहौल रहता।
जब बारात रातभर ठहरने के बाद विदा होती, तो दृश्य अत्यंत भावुक कर देने वाला होता। कन्या पक्ष के लोग अपने आंसू रोक नहीं पाते, लेकिन वर पक्ष भी कम उदास नहीं होता। शायद इन डेढ़ दिनों में कई युवा दिल ऐसे बंध जाते, जो जन्म-जन्मांतर तक जुड़े रहते।